Thursday, April 18, 2013

UTTARAKHAND RELIGIOUS SPACIAL TRIPS


      उत्तराखण्ड की प्रमुख यात्राएं


1 कैलास मानसरोवर यात्रा
2नन्दा राजजात यात्रा
3 हिल जात्रा
4 खतलिंग-रूद्रा देवी यात्रा
5 द्यवोरा यात्रा
6 पंवाली कांठा-केदार यात्रा(टिहरी गड़वाल)
7 सहस्त्र ताल-महाश्र ताल यात्रा
8 वारूणी यात्रा(उत्तरकाशी)


कैलास मानसरोवर यात्रा-इस यात्रा का आयोजन भारतीय विदेश मंत्रालय, कुमाउ
मण्डल विकास निगम तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस के सहयोग से होता है।
यह स्थल चीन के कब्जे में है इसलिए इस यात्रा के लिए वीजा जारी कराना होता है।
यह यात्रा दिल्ली से प्रारम्भ होकर मुरादाबाद, रामपुर, हल्द्धानी, काठगोदाम, भवाली होते
हुए अल्मोड़ा पहुचकर कौसानी, बागेश्वर,चौकोडी,डीडीहाट होते हुए धारचूला पहुंचती है।
धारचूला से लगभग पैदल यात्रा करते हुए तवाघाट , मांग्टी ,गुंजी,नवीढांग,लिपुलेख दर्रा
होते हुए तिब्बत में प्रवेश करती है। इस यात्रा की की समयावधि 40 दिन की होती है।
कैलाश मानसरोवर यात्रा में धारचूला के बाद 160 किमी पैदल चलना पड़ता है।

नन्दाराजजात यात्रा-उत्तराखण्ड की यह यात्रा गढवाल व कुमायूं की सांस्कृतिक एकता
का प्रतीक है।यह विश्व की की अनौखी पदयात्रा है,जिसमें चमोली के कांसुवा गांव, के पास
स्थित नौटी के नन्दा देवी मंदिर से होमकुण्ड तक की 280 किमी की यात्रा 19-20 दिन में
पूरी की जाती है।

हिलजात्रा-पिथौरागढ़ के सोरोघाटी का हिलजात्रा उत्सव मुख्यतः कृषकों तथा पशुपालकों का
उत्सव है। हिलजात्रा का सम्पूर्ण अर्थ होता है दददली जमीन । इस पर्व को वर्षा में ही आयोजित
किया जाता है।

द्यवोरा यात्रा-पिथौरागढ़ के कुछ भागों में मनाई जाने वाली इस देव यात्रा में ग्राम वासी एक डेढ़
साल विभीन्न मंदिरो, तीर्थों में यात्रा करते हुए बिताते हैं।

खतलिंग-रूद्रा देवी यात्रा-उत्तरांचल के ‘पांचवा धाम’ यात्रा के नाम से प्रचलित यह यात्रा टिहरी
जनपद के सीमान्त उच्च हिमालयी क्षेत्र में हर वर्ष सितम्बर माह में होती है।

सहस्त्र ताल महाश्र ताल यात्रा- यह यात्रा टिहरी से शुरू होकर बूढ़ाकेदार से महाश्र ताल
से घूत्तू से उत्तरकाशी के सहस्त्रताल समूह तक जाती है।

UTTARAKHAND FESTIVELS


उत्तराखण्ड के उत्सववों का विस्तार में अध्ययन


1-शारदीय उत्सव
 0-मौड मैला
 1-रणभू कीथौग
 2-नौढ़ा कौतिक
 3-लखवाड़ का मेला
 4-सनीगाढ़ का मेला
 5-हरेला कर्क संक्रान्ति
 6-चैती उत्सव
 7-हिलजात्रा
 8-खतड़वा
 9-नुणाई उत्सव
 10-गिर का कौतिक
 11-गिन्दी उत्सव या गेंद का मेला
 12-बौराणी का मेला
 13-बग्वालीपोखर का मेला
 14-बग्वाल
 15-उत्तरकाशी का विषौद का मेला
 16-बग्वालीपाखर का विजयोत्सव
 17-स्याल्दे बिखोती मेला
 19-चैती मेला
 20-उतरैणी मेला
 21-जौलजीवी का मेला
 22-गोचर का मेला


2-देवस्थीलय उत्सव
 1-कमलेश्वर महोत्सव
 2-कालसिन का मेला
 3-कैंचीधाम का मेला
 4-कोट का माई का मेला
 5-गणानाथ उत्सव
 6-चन्द्रवदनी उत्सव
 7-टपकेश्वर उत्सव
 8-देवीधार का मेला
 9-धोलीनागोत्सव
 10-पुण्यागिरी उत्सव
 11-बूंखाल का कालिकोत्सव
 12-गंगादशहरा उत्सव
 13-देवप्रयागी उत्सव

मौण मेला-मछली मारने का यह लोकोत्सव उत्तराखण्ड के पालीपछांऊ तथा जौनसार एवं रर्वाई-जौनपुर के क्षेत्रों में मनाया जाता है। मौण का शाब्दिक अर्थ विष होता है। यह तिमूर अथवा अटाल(एक वनस्पति) की छाल को सुखाने के बाद उसका चूर्ण बनाकर तैयार किया जाता है।इस चूर्ण को खल्टों(बकरी की खाल से बनाये गये थैलों) में भर कर इस अवसर के लिए रख दिया जाता है। और मेले के दिन नदी के मुहाने पर डाल
दिया जाता है। नदी के संकरे मार्ग पर पत्थरों की दीवार बना कर उसके प्रवाह को दूसरी ओर मोड़ दिया जाता है। जिससे मछली वाले गढढों के रूके हुए पानी मे मौण का गहन प्रवाह हो सके। जिससे रूके हुए पानी की मछलीयां अचेतन होकर पानी के उपर आ जाती है और लोग उन्हें बटोरनेमें लग जाते हैं।

मौण का उत्सव तीन रूपों में मनाया जाता था पहला माछीमौण,दूसरा जातरामौण,तीसरा ओदीमौण।
इनमें प्रथम दो का आयोजन अभी भी किया जाता है किन्तु तीसरा ओदीमौण जो सामन्तो व जमींदारों के शक्ति पदर्शन के साथ हुआ करता था अब
अतीत का विषय बन गया है। जातरमौण का आयोजन 12 वर्षों के अन्तराल से हुआ करता है।

कुमाउ में भी इसी प्रकार का उत्सव मनाया जाता है जिसे डहौ उठाना कहते हैं

रणभू कीथौग-इस उत्सव का आयोजन टिहरी जनपद नैलचामी पटटी के अर्न्तगत ढेला गांव में कार्तिक महिने में किया जाता है। यह आयोजन राजशाही के समय विभिन्न युद्वों में मारे गये रणबांकुरों की स्मृति में किया जाता है। इसमें विशेष रूप से रणभूत नृत्यों का आयोजन किया जाता है।

नौढ़ा कौतिक-उत्तराखण्ड के इस लोकोत्सव का आयोजन गढ़वाल मंडल के रूद्रप्रयाग जनपद में कर्णप्रयाग-गैरसेंण मार्ग पर नारायणगंगा के तट पर स्थित आदिबदरी के पवित्र देवस्थल में वैसाख मांस में किया जाता है। इस मेले को लटमार मेला भी कहा जाता है। इस अवसर पर व्यावसायिकक्रय विक्रय भी होता है। इस मेले में भी स्याल्दे के बिखोती के मेले के समान ही पिंडवाली और खेतीवाल लोगों के बीच मंदिर के प्रांगण पर अधिकारकरने के लिए लट्टों का प्रयोग किया जाता है।

लखवाड़ का मेला-इस लोकोत्सव का आयोजन सितम्बर-अक्टूबर में मसूरी से दूर जौनसार बाबर के जनजातिय क्षेत्र चकराता में किया जाता है।

सनीगाढ़ का मेला-इस उत्सव का आयोजन जिला बागेश्वर के कपकोट विकास खण्ड में सनीगाढ़-नवलिंग के देवालय में होता है।

हरेला कर्क संक्रान्ति-कुमांऊ ऋतुउत्सवों में हरियाले का स्थान सबसे उपर है। जिस दिन हरेला बोया जाता है उसी दिन से हरेला का आयोजन हो जाताहै। इस उत्सव में घर की महिलाएं शुद्ध स्थान से मिट्टी खोदकर लाती हैं तथा उसे सुखा कर छाान लेती हैं। तथा फिर पंच या सप्त धान्यों जैसे धान,मकई,उड़द,गहत, तिल,भट्ट आदि को मिश्रीत करके इसमें बो देती हैं। इस उत्सव में इसे बोने का कार्य महिलाओं तथा सिंचीत करने का कार्य कुवारी कन्याओं का होता है। इस त्यौहार पर विशेष तौर पर वृक्षारोपण के तौर पर बनाया जाता है।

चैती उत्सव-यह बोक्सा समाज का कृषि से जुडा हुआ प्रमुख लोकोत्सव है। जो वर्ष के प्रारम्भ में अर्थात चैत्रमास में मनाया जाता है।इस उत्सव में नये कृषि उत्पादों का उपभोग वर्जीत होता है। जब तक कि सम्बद्व देवी देवताओं को विशेषकर काशीपुर वाली देवी को न चढ़ा दिया जाए।

हिलजात्रा-यह भी कुमाउं मंडल के पिथौरागढ़ जनपद को सोर घाटी में मनाया जाता है। यह वर्षाकाल में प्रारम्भ में कृषक वर्ग द्वारा अभिनीत किया जानेवाला विशुद्व लोक नाट्य है। कृषि से सम्बद्व होने के कारण ही इसमें अभिनय करने वाले पात्रो का रूप भी तदअनुरूप ही होता है।

खतड़वा-खतड़वा का उत्सव केवल कुमाउ में वर्षाकाल की समाप्ति व शरद ऋतु के आगमन मंे कन्या संक्रान्ति को मनाया जाता है। यह कुमाउं के पशुचारक वर्गीय समाज का एक विशेष लोकोत्सव है।

नुणाई उत्सव-पशुचारकों से सम्बद्व यह पशूत्सव देहरादून जनपद के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बाबर के खत पटटी के भटाड़ गांव में मनाया जाता है।इसमें जंगलो में निवास करने वाले बकरवाल व मेषपालक अवश्य ही अपने पशुओ के रेवड़ों को लेकर घर आते हैं। तथा अपने पशुओं के रक्षक देवता सिलगुरू जी को अर्पित कर फिर भेड़-बकरियों के नाम पर शिरवा चढ़ाते हैं।


गिर का कौतिक-इस मनोरंजन लोकोत्सव अल्मोड़ा जनपद के मासी क्षेत्र में तुनाचौर के मैदान में तथा तल्ला सल्ट में चनुली गांव के निकटस्थ मैदान
में मकरसंक्रान्ति के दिन किया जाता है। इस क्रीडा में भाग लेने वाले खिलाड़ी तथा दर्शक नियत मैदान में आकर एकत्र होते हैं।

गिन्दी उत्सव या गेंद का मेला-मकर संक्रान्ति के अवसर पर दक्षिणी गढ़वाल के यमकेश्वर विकास में थल के निकटस्थ मैदान में लगने वाला यह प्रसिद्ध मैला
है।

बौराणी का मेला-द्यूतक्रीडा से जुडा यह उत्सव कुमाऊं मण्डल के पिथौरागढ़ जनपद में दिपावली के ठीक 15 दिन बाद बौराणी नामक स्थान पर तत्रस्थ
समदेवता के मंदिर के प्रागण में मनाया जाता है।

बग्वालीपोखर का मेला-अन्य द्यूतोत्सवों में जुआ हारने वाले जुआरियों के लिए यह उच्चतम न्यायालय के रूप में प्रसिद्व है। यह मेला जिला अल्मोड़ा की रानीखेत
तहसील के अर्न्तगत खैरना-कर्णप्रयाग मार्ग पर मछखाली एवं द्वाराहाट के मध्य में स्थित बग्वालीपोखर में लगता है।

बग्वाल-पर्वतीय क्षेत्रों में दीपावली का उत्सव मनाने के बाद अगले दिन से तीन दिन तक एक युद्ध की तैयारी के रूप में समरोत्सव(बग्वाल) मनाया जाता है।
जिसमें पाषाणी युद्धकला में प्रवीण योद्धा अपने कौशल का प्रदर्शन करते हैं। नैनीताल तथा चम्पावत के सीमान्त क्षेत्र, देवीधूरा में मनाये जाने वाला असाड़ी
का उत्सव कुमाऊं का प्रसिद्ध बग्वाल उत्सव है।

उत्तरकाशी का विषौद का मेला- उत्तरकाशी के भटवाड़ी तथा क्यार्क में विशाल  मेले का आयोजन होता है। यह मेला अपने धनुषबाणों के युद्ध के
लिए प्रसिद्ध है।

बग्वालीपाखर का विजयोत्सव-कार्तिक मास में दीपावली के बाद यमद्धितीया को आयोजित किये जाने वाले बग्वाली पोखर के द्यूप क्रीडोत्सव का एक
अन्य ऐतिहासिक पक्ष था भंडर गांव के थोकदार का अपने योद्धाओं के साथ ‘ओढ़’ भेंटना, जो कि इस मेले का प्रमुख आर्कषण हुआ करता था।इसमें
निकटस्थ भंडर गांव का थोकदार घोड़े पर सवार होकर नगाड़ों की डंके की चोटों के साथ जूलूस के रूप में आगे-आगे अपने वीरों का नेतृत्व करता था
लाल रंग का ध्वज,उसके बाद होती थीं एक क्विंटल भार के विशाल नगाडों की आजपूर्ण तालबद्ध गगनभेदी ध्वनियां, साथ ही होते थे इन सबके पीछे
होता था एक शान्ति एवं विजयश्री का प्रतीक श्वेत ध्वज

स्याल्दे बिखोती मेला-बग्वाल पोखर के समान ही यहां भी ‘ओढ़ा भेंटने’ की परम्परा प्रचलित रही है। यह मेला द्धाराहाट नगर में होता है।

चैती मेला-मेरठ के प्रसिद्ध नौचन्दी के मेले के समान ही यह मेला काशीपुर में लगता है। इसमे किसी बड़े मेले के समान ही कौतुकीय व्यवस्थाओं
-सर्कस,झूले,बाजार की जनउपयोगी वस्तुओं का बड़े व्यापारिक स्तर पर क्रय विक्रय होता है।

उतरैणी मेला-मकरसंक्रान्ति के अवसर पर कुमांऊ के अल्मोड़ा जनपद में एक सप्तदिवसीय प्रसिद्ध लोकोत्सव का आयोजन हुआ करता था।जिसमें कुमाउ
के अतिरिक्त गढ़वाल से नेपाल तक के लोग काफी संख्या में सम्मिलत होते थे।

जौलजीवी का मेला-इस मेले का आयोजन पिथौरागढ़ जनपद में उसके मुख्यालय से 70 किमी की दूरी पर धारचूला विकास खण्ड में अस्कोट से 10 किमी
दूर गारी काली नदियों के संगम पर दो दिनी उत्सव मनाया जाता है।

थल का मेला-यह एक व्यावसायिक मेला है। जो प्रतिवर्ष जिला पिथौरागड़ के थल में लगता है।

गोचर का मेला-यह एक औद्योगिक एवं व्यासायिक मेला है। जिसका शुभारम्भ पं. जवाहरलालनेहरू के जन्मदिन अर्थात 14 नवम्बर को होता है।
जिसमें विशेषकर उत्तराखंड के कुटीर उद्योग से समबन्धित वस्तुओं का प्रदर्शन एवं क्रय विक्रय होता है।


कमलेश्वर महोत्सव-इस धार्मिक लोकोत्सव का आयोजन कार्तिक मास के शुक्लपक्ष को चतुदर्शी , जिसे ‘बैकुण्ठ चतुदर्शी’ भी कहा जाता है, को गढ़वालकी पिछली राजधानी श्रीनगर में अलकनंदा के तट पर सिथत कमलेश्वर महादेव के प्रसिद्ध देवालय में किया जाता है।

कालसिन का मेला-यह मेला कुमाउं जनपद के अन्तर्गत जनपद चम्पाव में टनकपुर-चम्पाव राजमार्ग पर 25 किमी पर स्थित सूखीढांग से 5 किमी आगे श्वामताल के क्षेत्र में आयोजित किया जाता है।

कैंचीधाम का मेला-यह एकदिवसीय भण्डारोत्सव का आयोजन कुमाऊं मंडल के नैनीताल जनपद में उसके मुख्यालय से 18 किमी पूर्व में हल्द्धानी-रानीखेत अल्मोड़ा राजमार्ग पर कैंचीधाम नामक स्थान पर नीकरौरी के आश्रम में स्थापना दिवस के रूप में भण्डारे का आयोजन किया जाता है।

कोट का माई का मेला-यह मेला मार्कण्डेयपुराण में उल्लीखीत भ्रामरीदेवी तथा नन्दादेवी के सम्मान में चैच मास नवरात्रों की पंचमी से लेकर अष्टमी तक बैजनाथ?से लेकर ग्वालदम वाले मार्ग पर एक उॅची चोटी पर मनाया जाता है। पहले कत्यूरी शासन में इस स्थान को ‘रणचूलाकोट’ कहा जाता था।

गणानाथ उत्सव-यह उत्सव कुछ समय पूर्व तक अल्मोड़ा जनपदस्थ गणानाथ का उत्सव भी काफी प्रसिद्ध था ।

चन्द्रवदनी उत्सव-यह देवोत्सव गढ़वाल मंडल में टिहरी जनपद के 47 किमी पूर्व में तथा देवप्रयाग से 36 किमी आगे समुद्रतल से लगभग 2253 मी की उचाई पर स्थित गढ़वाल के 4 शक्तिपीठों में अत्यधिक प्रसिद्ध चन्द्रवदनी मंदिर में प्रतिवर्ष बैसाख में मनाया जाता है।

टपकेश्वर उत्सव-यह उत्सव देहरादून के निकट टौंस की सहायक नदी देवधारा के तट पर स्थित टपकेश्वर महोदय के मंदिर में शिवरात्रि को आयोजितहोता है। इस उत्सव का इस क्षेत्र के उत्सवों में काफी महत्वपूर्ण स्थान है।

देवीधार का मेला-यह लोकोत्सव चम्पावत जनपद के लोहाधाट से लगभग तीन किमी. पूर्व एक पहाड़ी की तलहटी में स्थित शिवालय में बनाया जाता है।

धोलीनागोत्सव-धौलीनाग का प्रसिद्ध मंदिर कुमाउं मंडल के बागेश्वर जनपद में बागेश्वर थल मार्ग पर आगे स्थित है। मूलतः यह पिथौरागढ़ में आता है।


UTTARAKHAND CENSUS 2011


उत्तराखण्ड जनगणना -2011

  कुल जनसंख्या

उत्तराखण्ड की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का 0.84 प्रतिशत है।
क्षेत्रफल की दृष्टि से उत्तराखण्ड देश के कुल क्षेत्रफल का 1.69 प्रतिशत है।
साक्षरता की दृष्टि से उत्तराखण्ड 17 वें स्थान पर है।
जबकि जनसंख्या की दृष्टि से भारत के राज्यों में इसका 20 वॉं स्थान है।
दशकीय जनसंख्या वृद्धि (19.17 प्रतिशत) की दृष्टि से देश में 16 वां स्थान है। राष्ट्रीय औसत-17.64 प्रतिशत

सर्वाधिक जनसंख्या वाला जिला  - हरिद्धार
सबसे कम जनसंख्श वाला जिला - रूद्रप्रयाग
10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले राज्य में केवल तीन जिलें - हरिद्धार, देहरादून , उद्यमसिंह नगर
0-6 आयु वर्ग के कुल शिशुओं का लिंगानुपात - 908 है।
राज्य में सर्वाधिक दशकीय वृद्वि दर (27.45) 1971 से 1981 के दौरान था।
अल्मोडा(-1.73 प्रतिशत ) व पौढ़ी गढ़वाल(-1.51प्रतिशत ) शून्य से नीचे रही है
सर्वाधिक दशकीय जनसंख्या वृद्वि दर में गिरावट टिहरी गड़वाल में दर्ज की गई है। हरिद्वार 33.16 प्रतिशत व देहरादून 32.48 प्रतिशतें दशकीय जनसंख्या वृद्वि
दर में वृद्वि हुयी है।


 जनघनत्व -

उत्तराखण्ड का जनघनत्व - 189 वर्ष 2001 में 159
सर्वाधिक जनघनत्व वाला जिला -हरिद्धार
सबसे कम जनघनत्व वाला जिला -उत्तरकाशी

 लिंगानुपात-

लिंगानुपात की दृष्टि से देश में उत्तराखण्ड 13वें स्थान पर है।
 2001 में लिंगानुपात-962
2011 में लिंगानुपात-963
लिंगानुपात का राष्ट्रीय औसत-940

 साक्षरता-

2011 में उत्तराखण्ड की साक्षरता दर- 79.63 प्रतिशत
साक्षरता दर का राष्ट्रीय औसत-74.04 प्रतिशत

                                          उत्तराखण्ड अनुसूचित जाति एवं जनजातियां
राज्य के सर्वाधिक और सबसे कम अनूसूचित जाति वाले जिले क्रमशः हरिद्वार और चम्पावत हैं।
राज्य के सर्वाधिक और सबसे कम अनूसुचित जाति प्रतिशत वाले जिले क्रमशः बागेश्वर एवं उधमसिंह नगर हैं।
राज्य के सर्वाधिक और सबसे कम अनुसूचित जाति वाले जिलं क्रमशः ऊधमसिंह नगर एवं रूद्रप्रयाग है।
राज्य में अनूसूचित जनजातियों के सर्वाधिक और सबसे कम प्रतिशत वाले जिले क्रमशः ऊधमसिंह नगर एवं रूद्रप्रयाग हैं।
राज्य में सर्वाधिक और सबसे कम अनूसुचिज जनजातियां जौनसारी एवं राजी हैं।
अनुसूचित जनजातियों के लिए 2 सीटें अनूसूचित जनजातियां के लिए आरक्षित है।
उत्तराखण्ड सरकार ने जुलाई 2001 में एक शासनादेश द्वारा राजकीय सेवाओं,शिक्षण संस्थाओं, सार्वजनिक उद्यमों ,निगमों एवं
स्वायन्तशासी संस्थाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए 4 प्रतिशत के आरक्षण की व्यवस्थाओं की व्यवस्था की है।
राज्य की कुल जनसंख्या में 17.87 प्रतिशत है।
राज्य की कुल जनसंख्या में 3.02 प्रतिशत है।
राज्य की कुल 5 अनुसूचित जनजातियां घोषित की गई हैं।
राज्य में सर्वाधिक और सबसे कम अनूसुचिज जनजातियां जौनसारी एवं राजी हैं।

प्रमुख अनु. जनजातियां

                        जौनसारी
जौनसारी राज्य का सबसे बड़ा जनजातिय समुदाय होने के साथ गढ़वाल का भी सबसे बड़ा समुदाय हैं।
इस क्षेत्र के अन्तर्गत देहरादून का बाबर क्षेत्र (चकराता, कालसी, त्यूनी), लाखामंडल, आदि क्षेत्र ,टिहरी का जौनपुर
एवं उत्तरकाशी का परग नेकाना क्षेत्र आता है। हनोल इनका प्रमुख तीर्थ स्थल है।

                         थारू
ऊधमसिंह नगर जिले में मुख्य रूप से खटीमा, किच्छाा,नानकमत्ता, और सितारगंज के 144 गांवों
में निवास करने वाले थारू उत्तराखण्ड के दूसरे सबसे बड़े समुदाय हैं। सामन्यतः थारूओं को
को किरात वंश का माना जाता है। थार का शाब्दिक अर्थ मदिरा है। और थारू का अर्थ मदिरापान
करने वाला है।
                    
                        भोटिया
भोटिया एक अर्धघूमंतू जनजाति है यह मध्य हिमालय की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है
राज्य के तिब्बत से सटे सीमावर्ती भाग को भोट प्रदेश कहा जाता है। लदाख में इन्हें भोटा किन्नोर
में इन्हें भोट तथा भूटान ने भूटानी कहा जाता है। भोटिया स्वयं को खस या राजपूत मानते हैं

                             बोक्सा

बोक्सा मुख्यतः उत्तराखण्ड के तराई बावर क्षेत्र में उघमसिंह नगर के बाजपुर,गदरपुर, एवं काशीपुर , नैनीताल के रामनगर
पौढी गढ़वाल के दुगडा एवं देहरादून के विकासनगर एवं सहसपुर विकासखण्ड के लगभग 173 ग्रामों में पाए जाते हैं।

                         राजी

राजी मुख्यतः पिथौरागड़ जनपद के धारचूला, कनालीछीना, एवं डीडीहाट खण्डों के 7 गांवों के अलावा चम्पावत के एक गांव
में निवास करते हैं।

Thursday, April 4, 2013

उत्तराखण्डःएक संक्षिप्त अवलोकन

राज्य गठन-            9 नवम्बर,2000
भारतीय गणतंत्र का उत्तराखण्डः         27वां राज्य
हिमालयी राज्यों के क्रम में उत्तराखण्डः          11 वा राज्य
राज्य का नाम                    :       31-12-2006 तक उत्तरांचल 1-1-2007 से उत्राखण्ड
राजधानी                                देहरादून
राजकीय भाषा                            हिन्दी(जनवरी 2010 से दूसरी भाषा संस्कृत)
राजकीय चिन्ह- एक गोलाकार मुद्रा में तीन पर्वत चोटियां और उसके नीचे गंगा की चार लहरें अंकित है। बीच की चोटी में अशोक का लाट अंकित है।
राजकीय पशु-  कस्तूरी मृग(हिमालयन मस्क डियर)
राजकीय वृक्ष-   बुरांस
राजकीय पुष्प-    ब्रहम कमल
 विघानमंडल-    एकसदनात्मक
विधानसभा का प्रथम गठन(अंतरिम)-  9 नवं, 2000 को (30 सदस्यीय )
प्रथम विधानसभा का प्रथम सत्र-9 जनवरी 2001 से
विधानसभा का अपना बेवसाइट शुरू-4 मई 2001 से(देश में प्रथम)
राज्य गठन से पूर्व इस क्षेत्र की कुल विधानसभा सीटें थी-22
परिसीमन के बाद विधानसभा की कुल सीटेें-71(70 निर्वाचित 1 मनोनीत)
विधानसभा की कुल सुरक्षित सीटें-15(13 अनुसूचित जनजाति व 2 अनूसूचित जनजाति)
उच्च न्यायालय की स्थापना- 9 नवं, 2000 को(देश का 20वां, नैनीताल)
कुल नगर निगम -3(देहरादून, हरिद्वार, व हल्द्वानी)
कैण्टोमेंट बोर्ड- 9(सेन्य कस्बों में)
नोटिफाइड एरिया-1(सेन्य कस्बों में)

सर्वाधिक तहसीलों वाले जिलें-अल्मोड़ा एवं पौढ़ी(9-9 तहसीलें)
सबसे कम तहसीलों वाले जिलें-हरिद्वार व रूद्रप्रयाग(3-3 तहसीलें)
सर्वाधिक विधानसभा सीटेें- हरिद्वार में (11)
सबसे कम विधानसभा सीटें- बागेश्रवर , रूद्रप्रयाग, चम्वावत में(2-2 विधानसभा सीटें)
सर्वाधिक विकासखण्डों वाला जिला-पौढ़ी(15 ब्लाक)
सबसे कम विकासखण्डों वाला जिला-रूद्रप्रयाग व बागेश्रवर(3-3 ब्लाक)